माँ (A few poems)

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Re: माँ (A few poems)

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मुक्त किया


जाओ बेटे,

मैने तुम्हे आज मुक्त कर दिया।

मैने ही नही,

हर माँ ने अपने बेटे को मुक्त कर दिया।

 

तुम्हे बाँध लिया था

मैने अपने आँचल में।

लेकिन बँध गई मैं

अपने ही बंधन में।

तुमने रेशमी डोर तोड़कर

स्वयं को स्वतंत्र कर लिया,

मैने तुम्हे आज मुक्त कर दिया।

 

तुम तो अतिथि थे मेरे,

अपना बसेरा बनाने से पूर्व

आश्रय लेने मेरे घर आए थे।

मैने ही घर की दीवारों पर,

तुम्हारा नाम लिख दिया।

मैने तुम्हे आज मुक्त कर दिया।

 

अपने अंक में भरकर,

तुम्हे अपना मान बैठी।

तुम्हारे सपनों पर,

अपना अधिकार जमा बैठी।

तुमने ही तो मुझे,

स्वयं को स्वयं से अलग करना सिखलाया।

मैने तुम्हे आज मुक्त कर दिया।

 

तुम्हारी अंगुली पकड़कर,

जिस राह पर चलना सिखलाया।

वह तो पगडंडी थी,

तुम्हे मुख्य मार्ग तक ले जाने वाली

 उसी दोराहे पर आकर,

तुमने मेरा हाथ छुड़ाकर अपना रास्ता अपना लिया।

मैने तुम्हे आज मुक्त कर दिया।

 ईश्वर द्वारा नियुक्त

मैं धाय थी तुम्हारी,

जिसका दायित्व आज पूर्ण हुआ।

हे मेरी अनमोल निधि,

मैने तुम्हे आज जगत के हवाले कर दिया।

मैने तुम्हे आज मुक्त कर दिया।।

 रेणु 'राजवंशी' गुप्ता


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चारों वर्णों की समानता और एकता
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सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्। ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः
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Re: माँ (A few poems)

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क्या सूरत क्या सीरत थी

माँ ममता की मूरत थी

 

पाँव छुए और काम हुए

अम्माँ एक महूरत थी

 

बस्ती भर के दु:ख-सुख में

मां एक अहम ज़रूरत थी

 

सच कहते हैं माँ हमको

तेरी बहुत ज़रूरत थी

 मंगल नसीम


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Re: माँ (A few poems)

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लेटी है माँ
आँगन के बीचों-बींच
सफ़ेद बुर्राक कपड़ों में
लेटी है माँ।
माँ, जिसकी बातें-
भोर की हवा
कुदकती अमराइयों में
बौर को सहलाती गुनगुनाती।
माँ, जिसका स्पर्श-
परियों की कथा सुनते बच्चे
अपने उलझे बालों में
महसूसते,
जिद्दी बच्चों की रुलाई
हथेलियों में डूब जाती
और फूट पड़ती
भुट्टे के दानों-सी हँसी।

माँ, जिसकी आँखों में-
सातों समुंदर का पानी था
सारे समंदर
तैरकर पार किए थे माँ ने
थकान को निगलते हुए।
माँ, जिसके जीवन का
कोई किनारा नहीं था
था सिर्फ़ सीमाहीन अंधकार

माँ थी-
बहुत दूर टिमटिमाती रोशनी
वही रोशनी नहा-धोकर
लेटी है आँगन में।
और मेरी बड़ी बहिन!
बुत बनी बैठी है
आँखों की चमक गायब है
क्षितिज तक फैला है रेगिस्तान
न ही किसी काफ़िले का
दूर तक नामोनिशान,
सोचता हूँ- इसकी आँखों के लिए
कहाँ से लाऊँ चमक?
कहाँ से लाऊँ सूरज-धुली मुस्कान?
और मेरी छोटी बहिन!
उसके सिर का आकाश
लेटा है आँगन में
उसकी हिचकियाँ, उसके आँसू
लगता है कायनात को डुबो देंगे
उसका ज़र्द चेहरा
साक्षात पीड़ा बन गया है
कहाँ से लाऊँ मैं आकाश,
जिसे उसके सिर पर ढक दूँ?
कहाँ से लाऊँ वे हथेलियाँ,
जो उसके आँसू सोख लें?

उँगलियाँ उलझे बालों को सुलझा दूँ
जो परियों की कहानी सुनाती माँ बन जाएँ,
उसके ज़र्द चेहरे पर, गुलाब खिला दें।
कहाँ से लाऊँ वह मीठी नज़र?
वह तो लेटी है- निश्चिंत होकर आँगन में।
मैं?
भाई से तब्दील हो रहा हूँ
अचानक सफ़र पर निकले पिता में
आँगन में लेटी माँ में
ताकि लौटा सकूँ - जो चला गया
जो लौटा सकता है - आँखों की चमक
चेहरों के ओस नहाए गुलाब
बड़ी से बड़ी कीमत पर।


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Re: माँ (A few poems)

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हर वो आँचल
जहाँ आकर
किसी का भी मन
बच्चा बन जाये
और अपनी हर
बात कह पाए
जहाँ तपते मन को
मिलती हो ठंडक
जहाँ भटके मन को
मिलता हो रास्ता
जहाँ खामोश मन को
मिलती हो जुबा
होता है एक माँ
का आँचल.

कभी मिलता है
ये आंचल एक
सखी मे
तो कभी मिलता है
ये आँचल एक
बहिन मे
तो कभी मिलता है
ये आँचल एक
अजनबी मे
ओर कभी कभी
शब्द भी एक
आँचल बन जाते है
इसी लिये तो
माँ की नहीं है
कोई उमर
ओर परिभाषा.

रचनाकार: रचना सिंह


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Re: माँ (A few poems)

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मीठी  नींद सुला  दे  माँ...

सपनो का पीछा  करते  करते  लगने  लगी  थकाई
बड़े  दिन हुए  बेफिक्री  की  नींद  नहीं  आई
फिरसे  थकन  भुला  दे  ना
बचपन  सा  सुला दे  माँ ..

बचपन  में  बेवजह  ही  यूँ  ही  मैं  दौर  के  आता
तुझको  बैठा  देख  के  तेरी  गोदी  में  सर  रख  देता

शायद लम्बी  है  दौर  बहुत  मैं  भटक  सा  गया  हूँ
कैसे  तुझको  बतलाऊँ  मैं  फिर  थक  सा  गया  हूँ
गोदी  में  सर  रख  के  मेरा  
बालों  को  सहला  दे  माँ
बचपन  सा  सुला  दे  माँ .

कैसे-कैसे  पकड़-पकड़ तू  मसल-मसल  नेहलाती  थी
हाथ  पैर  को  रगड़-रगड़.. तू  सारा  मेल  भागती   थी

खेलते-खेलते जीवन  के .. सब  खेल  खिलोने  बदल  गए
दिल  कला  कुछ  मन  मटमैला , कीचाध  में  पैर  फिसल  गए
एक  बार  फिर  अकड़-अकड़  तू  मुझे  पकड़  नेहला  दे  माँ
कंघी  कर  के  बाल  बना  के  मीठी  नींद  सुला  दे  माँ

सारी  की  तेरी  फाल  पकड़ .. सीखा  मैं  खडा  होना
ऊँगली  को  पकड़ ,तय  किया  सफ़र ..छोटे  से  बड़ा  होना

इस  होड़  हड़बड़ी  में  अब  साँसे  फूलती  हैं  थोडी
तुने  जो  सिखाई  थी  बातें  वो  भूलती  हैं  थोडी
सुकून  से  जीने  का  मंतर  फिर  एक  बार  बतला  दे  माँ
हरदम  जो  है  साथ  शिकन , आकर  माथा  धुला  दे  माँ ..

फिरसे  थकन  भुला  दे  ना
मीठी  नींद सुला  दे  माँ



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Re: माँ (A few poems)

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मेरी माँ

माँ बनकर ये जाना मैंने,
माँ की ममता क्या होती है,
सारे जग में सबसे सुंदर,
माँ की मूरत क्यों होती है॥

जब नन्हे-नन्हे नाज़ुक हाथों से,
तुम मुझे छूते थे. . .
कोमल-कोमल बाहों का झूला,
बना लटकते थे. . .
मै हर पल टकटकी लगाए,
तुम्हें निहारा करती थी. . .

उन आँखों में मेरा बचपन,
तस्वीर माँ की होती
थी,
माँ बनकर ये जाना मैंने,
माँ की ममता क्या होती है॥

जब मीठी-मीठी प्यारी बातें,
कानों में कहते थे,
नटखट मासूम अदाओं से,
तंग मुझे जब करते थे. . .
पकड़ के आँचल के साये,
तुम्हें छुपाया करती थी. . .

उस फैले आँचल में भी,
यादें माँ की होती थी. . .
माँ बनकर ये जाना मैंने,
माँ की ममता क्या होती है॥

देखा तुमको सीढ़ी दर सीढ़ी,
अपने कद से ऊँचे होते,
छोड़ हाथ मेरा जब तुम भी
चले कदम
बढ़ाते यों,
हो खुशी से पागल मै,
तुम्हें पुकारा करती थी,

कानों में तब माँ की बातें,
पल-पल गूँजा करती थी. . .
माँ बनकर ये जाना मैनें,
माँ की ममता क्या होती है॥

आज चले जब मुझे छोड़,
झर-झर आँसू बहते हैं,
रहे सलामत मेरे बच्चे,
हर-पल ये ही कहते हैं,
फूले-फले खुश रहे सदा,
यही दुआएँ करती हूँ. . .

मेरी हर दुआ में शामिल,
दुआएँ माँ की होती हैं. . .
माँ बनकर ये जाना
मैंने,
माँ की ममता क्या होती है॥

 सुनीता शानू



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Re: माँ (A few poems)

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तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ए फलक
मुझे तो मेरी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी  



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Re: माँ (A few poems)

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एक वीराना जिसमे काटी मेने साड़ी उम्र...
तेरी तसबीर लगा दी तो घर लगता है...
सख्त राहों में भी आसन सफर लगता है....
ये मेरी माँ कि दुआओं का असर लगता है.....



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Re: माँ (A few poems)

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मै रोया यहां दूर देस वहां भीग गया तेरा आंचल
तू रात को सोती उठ बैठी हुई तेरे दिल में हलचल
जो इतनी दूर चला आया ये कैसा प्यार तेरा है मां
सब ग़म ऐसे दूर हुए तेरा सर पर हाथ फिरा है मां
जीवन का कैसा खेल है ये मां तुझसे दूर हुआ हूं मै
वक़्त के हाथों की कठपुतली कैसा मजबूर हुआ हूं मै
जब भी मै तन्हा होता हूँ, मां तुझको गले लगाना है
भीड़ बहुत है दुनिया में तेरी बाहों में आना है
जब भी मै ठोकर खाता था मां तूने मुझे उठाया है
थक कर हार नहीं मानूं ये तूने ही समझाया है
मै आज जहां भी पहुंचा हूँ मां तेरे प्यार की शक्ति है
पर पहुंचा मै कितना दूर तू मेरी राहें तकती है
छोती छोटी बातों पर मां मुझको ध्यान तू करती है
चौखट की हर आहट पर मुझको पहचान तू करती है
कैसे बंधन में जकड़ा हूँ दो-चार दिनों आ पाता हूँ
बस देखती रहती है मुझको आँखों में नहीं समाता हूँ
तू चाहती है मुझको रोके मुझे सदा पास रखे अपने
पर भेजती है तू ये कह के जा पूरे कर अपने सपने
अपने सपने भूल के मां तू मेरे सपने जीती है
होठों से मुस्काती है दूरी के आंसू पीती है
बस एक बार तू कह दे मां मै पास तेरे रुक जाऊंगा
गोद में तेरी सर होगा मै वापस कभी ना जाऊंगा


रोहित जैन



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Re: माँ (A few poems)

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विष्णु नागर की एक कविता.......

मां सब कुछ कर सकती है
 

मां सब कुछ कर सकती है

रात-रात भर बिना पलक झपकाए जाग सकती है

पूरा-पूरा दिन घर में खट सकती है

धरती से ज्यादा धैर्य रख सकती है

बर्फ़ से तेजी से पिघल सकती है

हिरणी से ज्यादा तेज दौड़कर खुद को भी चकित कर सकती है

आग में कूद सकती है

तैरती रह सकती है समुद्रों में

देश-परदेश   शहर-गांव    झुग्गी-झोंपड़ी   सड़क पर भी रह सकती है

 

वह शेरनी से ज्यादा खतरनाक

लोहे से ज्यादा कठोर सिद्ध हो सकती है

वह उत्तरी ध्रुव से ज्यादा ठंडी और

रोटी से ज्यादा मुलायम साबित हो सकती है

वह तेल से भी ज्यादा देर तक खौलती रह सकती है

चट्टान से भी ज्यादा मजबूत साबित हो सकती है

वह फांद सकती है ऊंची-से-ऊंची दीवारें

बिल्ली की तरह झपट्टा मार सकती है

वह फूस पर लेटकर महलों में रहने का सुख भोग सकती है

वह फुदक सकती है चिड़िया की मानिंद

जीवन बचाने के लिए वह कहीं से कुछ भी चुरा सकती है

किसी के भी पास जाकर वह गिड़गिड़ा सकती है

तलवार की धार पर दौड़ सकती है वह लहुलुहान हुए बिना

वह देर तक जल सकती है राख हुए बगैर

वह बुझ सकती है पानी के बिना

 

वह सब कुछ कर सकती है इसका यह मतलब नहीं

कि उससे सब कुछ करवा लेना चाहिए

उसे इस्तेमाल करनेवालों को गच्चा देना भी खूब आता है

और यह काम वह चेहरे से बिना कुछ कहे कर सकती है।



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Re: माँ (A few poems)

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वो बूढ़ी सी अम्मा

गोरी से पीली

पीली से काली हो गई हैं अम्मा

इक दिन मैंने देखा

सचमुच बूढ़ी हो गई है अम्मा।

कुछ बादल बेटे ने लूटे

कुछ हरियाली बेटी ने

एक नदी थी

कहां खो गई रेती हो गई हैं अम्मा

देख लिया है सोना चांदी

जब से उसके बक्से में

तब से बेटों की नजरों

अच्छी हो गई हैं अम्मा।

कल तक अम्मा अम्मा कहते

फिरते थे जिसके पीछे

आज उन्हीं बच्चों के आगे

बच्ची हो गई है अम्मा।

घर के हर इक फर्द की आँखों में

दौलत का चश्मा हैं

सबको दिखता वक्त कीमती

सस्ती हो गई अम्मा।

बोझ समझते थे सब

भारी लगती थी लेकिन जब से

अपने सर का साया समझा

हल्की हो गई अम्मा।---------------


संजय सेन सागर



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Re: माँ (A few poems)

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:: सुणिये मेरी माँ ::


--------------------------------------------------------------------------------

हे माँ, खतरा तो बहोत सै, पर तू घबराइये मत ना

अर जै ना भी आ पाऊँ तो नीर बहाइये मत ना

 

तेरी कोमल गोदी-से लागैं, नुकीले शिखर पहाड़ाँ के

तेरी ममता से फूल बणै सैं, लाम्बे काण्डे बाड़ाँ के

मेरी सोच मैं भाई नै, सरहद काहनी भजाइये मत ना

हे माँ, खतरा तो बहोत सै, पर तू घबराइये मत ना

 

एक-एक दुश्मन की दुश्मन हो री सै माँ म्हारी गोली

पीठ दीखा कै भाजती देखी हामनैं दुश्मनां की टोली

जिस ढाल वे कायर भॉज़े, राम किसे नै भजाइये मत ना

हे माँ, खतरा तो बहोत सै, पर तू घबराइये मत ना  

भूख लागै सै जब मेरी माँ, कढ़ोणी का दूध याद आवै सै

वो टिण्डी घी याद आवै सै, वा लास्सी याद आवै सै

थोड़ा-सा घी बचा कै राखिये, सारा का सारा खाइये मत ना

हे माँ, खतरा तो बहोत सै, पर तू घबराइये मत ना

जो पाठ तन्नै पढ़ाया था, वो पूरा कर रहया लाल तेरा  

गोली लाग कै उल्टी मुड़या, इसा लोह का पूत विशाल तेरा  

अगले जन्म मैं फेर मन्नै जणिये, मेरे तैं मोह तुड़ाइये मत ना  

हे माँ, खतरा तो बहोत सै, पर तू घबराइये मत ना

Jagbir Rathee



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Re: माँ (A few poems)

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मोम सी जलती रही
ताकि घर रोशन हो सके
और सब उस रोशन घर में बैठे
सुनहरे सपने बुना करते
परियों की कहानियां सुना करते
माँ की तपन से बेखबर
बात-बात से खुशियां चुना करते
और माँ जलती जाती
चुपचाप पिघलती जाती
मुर्गे की बांग से रात के सन्नाटे तक
बाज़ार के सौदे से घर के आटे तक
बापू की चीख से बच्चों की छींक तक
सपनो की दुनिया से घर की लीक तक
माँ खुद को भुलाकर बस माँ होती थी
बिन मांगी एक दुआं होती थी
माँ चक्करघिरनी सी घुमती रही
खुद अनकही पर सबकी सुनती रही
पर जब वह उदास होती
एक बात बड़ी खास होती
वह बापू से दूर-दूर रहती
पर बच्चों के और पास होती
माँ ने खुद खींची थी एक लक्ष्मण रेखा अपने चारो ओर
इसलिए नहीं मांगा कभी सोने का हिरण, कोई चमकती किरण
माँ को चाहिए था वो घर
जहां थे उनके नन्हें-नन्हें पर
जिनमे आसमां भरना था
 हर सपना साकार करना था
पर जब सपने उड़ान भरने लगे
दुर्भाग्यवश धरा से ही डरने लगे
और माँ वक्त के थपेड़ों से भक-भक कर जलने लगी
बूढ़ी हो गई वह भीतर से गलने लगी
जिस माँ ने आबाद किया था घर को
वहीं माँ उस घर को खलने लगी
उंगली पकड कर जिनको चलना सिखाया
हर पग पर जिन्हें संभलना सिखाया
जिनका झूठा खाया, लोरी सुनाई
बापू से जिनकी कमियां छिपाई
रात भर सीने से लगा चुप कराती रही
बच्चों का पेट भर हर्षाती रही
दो पाटों के बीच सदा पिसती रही
आँखों से दर्द बनकर रिसती रही
बापू के हज़ार सितम झेलती थी पर
बच्चों के खातिर कुछ ना बोलती थी
ऐसी मोम सी माँ
जलते-जलते बुझ गई
यक्ष प्रश्न कर गई
कि
एक माँ सारे घर को संभाल लेती है
सारा घर मिलकर भी एक माँ को संभाल नहीं पाता
माँ के जीवन की संध्या को ही रोशनी क्यूं नही नसीब होती
जबकि मां अपने बच्चों की हर पहर को रोशन करने के लिए
ताउम्र आंधियों से लड़ा करती है
उनके सहारे की कद्र क्यूं नहीं हुआ करती
जबकि जब वह दूर चली जाती है
तो उनकी बहुत याद आती है
बहुत याद आती है

Ritu Goel



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Re: माँ (A few poems)

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माँ की अपेक्षा


’दुनिया’


मेरे लिए एक छोटा रहस्य है।


दुनिया को जानने का कौतुहूल


जरूर बना रहा मन में


किंतु ‘माँ’ को जानकर


जाना जा सकता है


आसानी से इस ‘संसार’ को


यह बहुत देर में जाना.....


छोटी सी थी तो देखती....


माँ को बडे धैर्य से....


बडी शांति से वह संवार देती थी


’घर और जीवन’ की हर बिगडी चीज को


बिना माथे पर शिकन लाए


गाती गुनगुनाती सहजता से


सब्जी मे भूले से


ज्यादा नमक डल जाने पर


सोख लेती थी उसका ‘सारा खारापन’


सहजता से, आटे की पेडी डाल उसमें....


अधिक डली हल्दी के बदरंग और स्वाद


की ही तरह....


ठीक कर लेती थी


संबधों और परिस्थितियों के भी


बिगडे रंग और स्वाद...


चाय मे अधिक चीनी हो


या फिर फटा दूध


या कि स्वेटर बुनते हुए


असावधानी वश सलाई से छूट गया ‘फन्दा’


(गिरे हुये घर को)


कैसे आसानी से उठा लेती थी ‘माँ’


वह गिरा हुआ फन्दा


कैसे सहेजता से, बुनाई – सिलाई के झोल की


ही तरह


निकाल लेती थी


जीवन के भी सारे झोल.....


हम तो घबरा उठते हैं


छोटी छोटी मुश्किलों में....


छोड देते हैं धैर्ये.....


चुक जाती है शक्ति.....


शायद ‘माँ’ होना


अपने आप मे ही ‘ईश्वरीय शक्ति’


का होना है।






मीनाक्षी जिजीविषा



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Re: माँ (A few poems)

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माँ
कोई शिकायत नहीं है तुमसे मुझे
कि तुमने मुझे गर्भ में ही मार दिया
तुम तो मजबूर थी ना
कितनी कोशिश की तुमने
लेकिन मुझे बचा नहीं पाई
पर मुझे कोई शिकायत नहीं है तुमसे
तुम तो यूं ही उदास हो
कोई पाप नहीं किया है तुमने
अरे मुझे जन्म ही तो नहीं लेने दिया न
मैं करती भी क्या जन्म लेकर
न तो थाली ही बजती मेरे जन्म पर
और ना ही बांटी जाती मिठाइयाँ
माँ
तुम रो क्यों रही हो
मैं तो समर्थन ही कर रही हूँ
तुम्हारे उस निर्णय का
जब तुमने दुःख के असीम पारावार से निकलकर
पापा को न केवल सांत्वना दी थी
बल्कि वादा भी किया था मुझे गर्भ मे ही ख़त्म कर देने का
माँ
तुम्हारा क्या कसूर है
तुम तो मजबूर थी ना
तुम नहीं विरोध नहीं कर सकती थी
दादी के आकांक्षा और पापा की आदेशनुमा अनुरोध का
और ......और .....हाँ
तुम सहन नहीं कर सकती थी .....
पड़ोस की औरतों के ताने
तुमने मुझे जन्म लेने से रोककर
रोक लिया
अपनी हर भावी पीड़ा और आंसुओं की संभावना को
और हाँ माँ मुझे जन्म न देने के जो दावे किए गए थे
वो सब भी तो ठीक ही थे
ठीक ही तो कहा था पापा ने
प्रेमचंद के गोदान का वो अंश
"चारा खली पर पहला हक बैलों का है
बचे सो गायों का"
क्या तुम चाहोगी की तुम्हारी बेटी को निम्नता का अहसास हो
वो हमारे बेटे की अपेक्षा दबकर जीवन जिए
उसकी हर इच्छा हमारे लिए गौण हो
नहीं ना
तो फिर उसे जन्म मत दो
और मेरी माँ
तुम तो सबसे ही आगे निकल गई
रूह कांप उठती है
जब याद करती हूँ तुम्हारे वो घटिया मानसिक मंथन से निकले हुए दावे
इसी तरह समझाया था ना तुम्हें ख़ुद को
"बेटी तो जन्म से कष्ट है
हर असहनीय सहन करना पड़ता है
एक बेटी के लिए
वो पराया धन हैं फिर भी
उसे पढ़ना लिखना पड़ेगा
वो सब उसके लिए किस काम का
वो बड़ी होगी तो समाज की गन्दी निगाहें उसे जीने नहीं देंगी
और शादी, दहेज़ की कल्पना से ही कोई भी कांप उठता है
और कहीं किसी से प्यार कर बैठेगी तो............
जीना, मरने से भी दूभर हो जायेगा
न जाने क्या हो वक्त बहुत ख़राब है
लड़की अगर हाथ से निकल जाए तो कहीं भी जा सकती है ................
वहां भी ........................
नहीं नहीं ............... इससे तो अच्छा है मैं उसे जन्म ही ना दूँ "
वाह माँ
कम से कम एक बार इतना तो सोचा होता
क्या बेटी को पढ़ाने से माँ-बाप कंगाल हो जाते हैं
क्या इस समाज में कोई नहीं मिलता बिना दहेज़ तुम्हारी बेटी का
हाथ थामने वाला
क्या तुम्हे बिल्कुल भी यकीन नहीं था अपनी परवरिश पर
ज़रा बताओ मुझे
क्या सभी लड़कियां बन जाती हैं वेश्याएं .......................
सच तो ये है माँ कि तुमने खून किया है मेरा
ख़ुद को बचाने के लिए बलि चढ़ा दिया तुमने मुझे
सूख गई तुम्हारी ममता और ख़त्म हो गया तुम्हारा वात्सल्य
चंद घटिया और खोखले दावों के सामने
अरे किसने दिया तुम्हें
माँ कहलाने का हक
इससे तो अच्छा होता की तुम मुझे जन्म देती
और गला घोंटकर मार देती
कम से कम इसी बहाने ये अभागिन
स्पर्श तो पा जाती तुम्हारे हाथों का..................
पर तुमने तो मुझे एक अवसर भी नहीं दिया
सुना है माँ ... अस्पताल के पीछे जहाँ दफनाया गया था मुझे
वहां उग आया है एक नन्हा सा पौधा
कभी फुरसत मिले तो कड़कती बेरहम धूप में
मुझे अपने आँचल की छाँव देने आ जाना .........
बस माँ यही कहना था तुमसे ............
और हाँ अब अपने आँसू पोंछ दो ........
भैया के स्कूल से आने को समय हो गया.......


 अरुण मित्तल ‘अदभुत‘



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चारों वर्णों की समानता और एकता
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सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्। ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः
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Re: माँ (A few poems)

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मां तुम कहां हो

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है

वो तेरा सीने से लगाना,


आंचल में सुलाना याद आता है।

क्यों तुम मुझसे दूर गई,

किस बात पर तुम रूठी हो,

मैं तो झट से हंस देता था।

पर तुम तो

अब तक रूठी हो।

रोता है हर पल दिल मेरा,

तेरे खो जाने के बाद,

गिरते हैं हर लम्हा आंसू ,

तेरे सो जाने के बाद।

मां तेरी वो प्यारी सी लोरी ,

अब तक दिल में भीनी है।

इस दुनिया में न कुछ अपना,

सब पत्थर दिल बसते हैं,

एक तू ही सत्य की मूरत थी,

तू भी तो अब खोई है।

आ जाओ न अब सताओ,

दिल सहम सा जाता है,

अंधेरी सी रात में

मां तेरा चेहरा नजर आता है।

आ जाओ बस एक बार मां

अब ना तुम्हें सताउंगा,

चाहे निकले

जान मेरी अब ना तुम्हें रूलाउंगा।

आ जाओ ना मां तुम,

मेरा दम निकल सा जाता है।

हर लम्हा इसी तरह ,

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है।


संजय सेन सागर



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Re: माँ (A few poems)

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मां के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिऊंटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
मां वहां हर रोज़ चुटकी - दो- चुटकी आटा डाल जाती है

मैं जब भी सोचना शुरू करता हूं
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज़
मुझे घेरने बैठ जाती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊंघने लगता हूं

जब भी कोई मां छिलके उतारकर
चने, मूंगफली या मटर के दाने
नन्हीं हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर
थरथराने लगते हैं

मां ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिये
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया

मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
मां पर नहीं लिख सकता कविता


साभार:चन्द्रकान्त देवताले



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Re: माँ (A few poems)

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माँ का पिण्ड दान



दोस्त कुटुम्बी देते हैं ,


बारी बारी कान्धा तुझको,


और मैं कच्ची हांडी सा,


तेरा बच्चा, चलता हूँ आगे,


एक पकी हाँडी,


हाथ में ले कर ।





इस मिट्टी के बर्तन में,


लिये जाता हूँ माँ ,


थोडा इतिहास, एक युग, एक जीवन,


चुट्की भर जवानी, एक अंजुली बचपन,


अट्कन बट्कन , दही चट्कन,


घी दूध मख्खन,


अलमारियों की चाबी,


गंगाजली का ढक्कन,


और तू कुछ बोलती नहीं।



यों तेरी गृहस्थी,


मटकी में किये बंद,


चलता हूँ मैं माँ,


नंगे पैर, कि तू ,


कन्धों से आंगन में,


उतर कर आ जाये।


पहले झगडे, चिढे, गुस्साये,


बाद में फ़ुसलाये,


"लल्ला नंगे पांव ना घूमो"


पर तू कुछ बोलती नहीं।





अन्तिम यात्रा कहते हैं लोग इसे,


रोने भी नही देते जी भर,


देते हैं मुझे हवाले ,


वासांसि जीर्णानि से,


नैनम छिन्दन्ति तक,


गीता से गरुड तक,


ईश्वर से नश्वर तक,


लौकिक से शाश्वत तक,


मैं मुस्कुरा के तुझे,


देता हूँ मुखाग्नि,


करता हूँ तेरा पिन्ड दान,


कि माएं ना पैदा होती हैं,


ना मरती हैं।
– दिव्यांशु शर्मा



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Re: माँ (A few poems)

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शायर: निदा फ़ाज़ली

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार


लेके तन के नाप को घूमे बस्ती गाँव
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव
सबकी पूजा एक सी अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी कोयल गाये गीत
पूजा घर में मूर्ती मीर के संग श्याम
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम


सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फ़कीर
अच्छी संगत बैठकर संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप


सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास
पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास
चाहे गीता बाचिये या पढ़िये क़ुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान



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Re: माँ (A few poems)

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रूह के रिश्तों की ये गहराइयाँ तो देखिये,
चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ।

कब ज़रूरत हो मेरी बच्चों को इतना सोच कर,
जागती रहती हैं आँखें और सो जात है माँ।

चाहे हम खुशियों में माँ को भूल जायें दोस्तों,
जब मुसीबत सर पे आ जाए, तो याद आती है माँ।

लौट कर सफर से वापस जब कभी आते हैं हम,
डाल कर बाहें गले में सर को सहलाती है माँ।

हो नही सकता कभी एहसान है उसका अदा,
मरते मरते भी दुआ जीने की दे जाती है माँ।

मरते दम बच्चा अगर आ पाये न परदेस से,
अपनी दोनो पुतलियाँ चौखट पे धर जाती है माँ।

प्यार कहते है किसे और ममता क्या चीज है,
ये तो उन बच्चों से पूँछो, जिनकी मर जाती है माँ।



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